Sunday, August 9, 2009

चंद शेर उर्फ़ एक ग़ज़ल

वह अपनी आदत से कब बाज़ आये है
देख कर हालत मेरी मुस्कुराये है

हुस्न की फितरत में फरेब है लोगों
और मासूम दिल मात खाए है

होश नहीं, सब्र नहीं, ताब नहीं
तो फिर क्यूँ न मेरी जान जाए है

उसकी सारी बातें बिलकुल झूटी हैं
पर कमबख्त ये दिल मान जाये है

इस शहर में गर हैं सब अहबाब मेरे
तू फिर कौन है जो घात लगाये है

1 comment:

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

वाह साहेब, देर आए दुरूस्त आए। मजा आ गया। सबसे अच्छा लगा-
हुस्न की फितरत में फरेब है लोगों
और मासूम दिल मात खाए है