Wednesday, August 12, 2009

यादें बोझ नहीं हैं मगर.......

तसव्वुर की सीढियाँ चढ़ कर
ख्याल के कमरे में
जब भी दाखिल होता हूँ
याद की अलमारी में तुम्हें पता हूँ
तुम्हारे यादें बोझ नहीं हैं मगर
आगे बढ़ते रहने के लिए
तुम्हारी यादों से मुंह मोड़ना अब ज़रूरी है
क्यूंकि सारी उम्र तड़प कर मैं जी नहीं सकता
तो सुनो जाना!
सीढियाँ हटा रहा हूँ
कमरे की दीवारें और छत गिरा रहा हूँ
कबाड़ में रखने जा रहा हूँ अलमारी

1 comment:

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

इन सीढ़ियों को यूं न हटाओ जालिम/ इन सीढ़ियों के हर पायदान पर तुम्हारे पांव के धूल पड़े हैं/ याद है जब हम-तुम पहली बार इन सीढियों पर साथ-साथ चले थे/ उस शाम को याद करना फिर सीढियां हटाना/ जालिम कमरेकी दीवारों और छत को गिराकर/ क्या मिलेगा तुम्हें / मैं तब भी उन कंक्रीटों में पड़ी रहूंगी और तुम्हारी बेजुबां हो चुकी आंखों को निहारती रहूंगी....।

तुम्हारी और केवल तुम्हारी-आलमारी