Tuesday, August 25, 2009

वही अंदाज़ था जालिम का पुरवाई वाला
ज़ख्म फिर से हरा है शनाशाई वाला

हम है उल्फत में गिरिफ्तार किसी सीमतन के
और कमबख्त यह जहाँ तमाशाई वाला

1 comment:

अवनीश मिश्रा said...

प्यार हाड मांस के इंसानों और ईंट पत्थरों से भी ज्यादा वास्तविक और भौतिक (real) होता है ये इस ग़ज़ल को पढ़ कर पता चलता है ..आदमी के बिछड़ने से लोगों को उतनी तक्ल्लीफ़ नहीं होती जितनी तकलीफ प्यार को खो देने से होती है..वैसे ये बात मेरे समझ में कभी नहीं आयी..