Wednesday, September 2, 2009

शुरुआत का कोई अंत नहीं है

अंत शुरुआत का नहीं होता
अंत शुरुआत के लिए है
अंत शुन्य है
एक धरातल या
नयी शुरुआत की ज़मीं
अंत मुकम्मल खात्मा नहीं
अगर कुछ ख़त्म होता है
तो उस खात्मे में
नए आगाज़ की एक रूह
सांस भरती है
जैसे रात के अंत में
भोर का रौशन उफक
होता है अयाँ
और होती है शुरुआत
एक नए दिन की......
यूँ है कि
शुरुआत का कोई अंत नहीं

Tuesday, August 25, 2009

वही अंदाज़ था जालिम का पुरवाई वाला
ज़ख्म फिर से हरा है शनाशाई वाला

हम है उल्फत में गिरिफ्तार किसी सीमतन के
और कमबख्त यह जहाँ तमाशाई वाला

Thursday, August 20, 2009

अब तक
उसे
मालूम थी आयतें
पढ़ा था कुरान
उसने
मगर उस दिन
जब
तुम्हारे होंट का लम्स
उसके आबनूसी जिस्म को छू कर गुज़रा
शलोक की आवाज़ आई

Sunday, August 16, 2009

बाप ने जोड़े थे
कई ईंटे
और बनाया था एक मकान
ये उसके ख्वाबों का घर था
जहाँ थे उसके बच्चे
जो उसकी आँखों के सामने
घर के आँगन में खेलते
धीरे धीरे हो रहे थे जवान

बाप मर चूका है
और बच्चे हो चुके है जवान
बाप के ख्वाबों का घर
अब उसके जवान बच्चे
कर रहे हैं नीलाम
क्यूंकि उनकी बीवियों को
यह घर लगता है छोटा

माँ खामोश है
और देख रही है
अपने पति के ख्वाबों का बलात्कार
यह जानते हुए भी
कि उस बड़े मकान में
मिलेगा उसे सिर्फ एक कोना

Wednesday, August 12, 2009

यादें बोझ नहीं हैं मगर.......

तसव्वुर की सीढियाँ चढ़ कर
ख्याल के कमरे में
जब भी दाखिल होता हूँ
याद की अलमारी में तुम्हें पता हूँ
तुम्हारे यादें बोझ नहीं हैं मगर
आगे बढ़ते रहने के लिए
तुम्हारी यादों से मुंह मोड़ना अब ज़रूरी है
क्यूंकि सारी उम्र तड़प कर मैं जी नहीं सकता
तो सुनो जाना!
सीढियाँ हटा रहा हूँ
कमरे की दीवारें और छत गिरा रहा हूँ
कबाड़ में रखने जा रहा हूँ अलमारी

Sunday, August 9, 2009

चंद शेर उर्फ़ एक ग़ज़ल

वह अपनी आदत से कब बाज़ आये है
देख कर हालत मेरी मुस्कुराये है

हुस्न की फितरत में फरेब है लोगों
और मासूम दिल मात खाए है

होश नहीं, सब्र नहीं, ताब नहीं
तो फिर क्यूँ न मेरी जान जाए है

उसकी सारी बातें बिलकुल झूटी हैं
पर कमबख्त ये दिल मान जाये है

इस शहर में गर हैं सब अहबाब मेरे
तू फिर कौन है जो घात लगाये है